श्री कुलजा भगवती कामाक्षा महामाया जैदेवी जिसको सुकेत के राजाओं की कुल देवी तथा सुकेत रियासत की राज-राजेश्वरी एवं अधिष्ठात्री देवी भी कहा जाता है। देवी का मंदिर सुंदर पहाड़ियों से घिरा हुआ तथा प्रकृति की गोद में बसा हुआ ऐतिहासिक कला को दर्शाता हुआ हिंदू प्राचीन मंदिर है । कामाक्षा का मतलब होता है - सभी प्रकार की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली देवी । माँ कामाक्षा के कारण यह स्थान देश प्रदेश में प्रसिद्ध है जिसे आप जैदेवी के नाम से जानते हैं । इस स्थान के आराध्य देवता श्री माँहूनाग जी जयदेवी तथा श्री बाला टीका जी काफला जी माने जाते हैं तथा इस स्थान की उत्पत्ति माँ कामाक्षा से मानी जाती है ।
देवी का मूल मंदिर कामाख्या शक्तिपीठ असम में स्थित है । भारत में पूर्व मे बसे
लोगो के द्वारा देवी को कामाख्या के नाम से , उत्तर में देवी को कामाक्षा के नाम
से और दक्षिण में देवी को कामाक्षी के नाम से जाना जाता है । सुकेत के राज परिवार
की कुल देवी होने पर माँ कामाक्षा को सुकेत के मेले की जलेव तथा जातर में सर्व
प्रथम स्थान दिया जाता हैं। और ऐसा कहा जाता है कि सुकेत का मेला देव कमरूनाग,
मूल महूनाग और माँ कामाक्षा के नाम का लगता है।
अगर माँ कामाक्षा के इतिहास की बात करें तो जब सुकेत के प्राचीन राजा श्री श्याम
सेन जी अपनी पुरानी रियासत की राजधानी पांगणा से सुकेत की नई राजधानी करतारपुर,
लोहारा एवं बनेड में बदल रहे थे तभी माँ कामाक्षा को राजाओं द्वारा राजा के महल
पुराने महल से नए महल में लाया जाना था। और इसी बीच किसी कारण बस माँ कामाक्षा का
मंदिर इस स्थान (जयदेवी) पर बनाया गया तथा मूर्ति स्थापित की गई । तभी चारों ओर
से जयदेवी-जैदेवी के जयकारों से पूरी धरती जगमगा उठी और तभी से इस जगह का नाम
जयदेवी पड़ गया
अगर इससे पहले इतिहास की बात करें तो ऐसा कहा जाता है कि सुकेत के राजाओं का मूल
स्थान बंगाल बताया जाता है जब राजा प्राचीन काल में अपनी राजधानी का गठन करने के
लिए और राज करने के उद्देश्य से जो भारत के उत्तर दिशा की तरफ निकले तभी राजाओं
के द्वारा माँ कामाक्षा कि इस अद्भुत मूर्ति को असम ( बंगाल / कोलकाता /
गुवाहाटी) से लाया गया था । इस मंदिर में देवी कुल और काली दोनों मतों में वास
करती हैं । भगवती कामाक्षा जय देवी के मंदिर का निर्माण सुकेत के राजा के द्वारा
करवाया गया था और जिसका जीर्णोद्धार मंदिर कमेटी के द्वारा और स्थानीय लोगों के
द्वारा कई बार करवाया गया ।
सुकेत के राजघरानों की सदा से एक परंपरा रही है कि राजा कोई भी शुभ कार्य करने से
पहले वह अपनी कुलदेवी का आशीर्वाद सदा लिया करते थे। इसके लिए राजा अपनी कुलदेवी
को अपने महल मे आने का न्योता दिया करते थे। जिसे जिसे स्थानीय भाषा में जात्र
कहा जाता है । प्राचीन काल में राजा स्वयं और कुछ कारदारो के साथ मां कामाक्षा को
मेले में ले जाने के लिए आते थे । इसके बाद राजा के द्वारा कुलदेवी को बड़े ही
धूमधाम से अपने महल में लाया जाता था और प्राचीन काल में मां कामाक्षा करंडी
(पालकी पर विराजमान ) पर राजा के महल में जाती थी ।
बाद में स्थानीय वासियों के द्वारा देवी के लिए भव्य पालकी का निर्माण किया गया
जिसके बाद देवी का स्वागत मेले में पालकी के साथ होता है । और आज भी देवी
कामाक्षा मेले में पालकी में जाया करती है । जब-जब भी सुकेत के राजा द्वारा देवी
को न्योता आया करता था । तब मां कामाख्या करंडी पर सवार होकर केवल पुजारी सहित
जय देवी से राजा के महल में जाया करती थी और उसके बाद कुछ दिनों तक माता पुजारी
सहित राजा के महल में निवास किया करती थी । और उसी दौरान देवी के मेले महल में
लगा करते थे । पहले देवी के मेले लोहारा में उसके बाद करतारपुर में और आखिरी में
बनेड के महल में लगा करते थे । सन् 1900 के बाद सुकेत के अंतिम राजा लक्ष्मण सेन
के द्वारा देवी को सुकेत मेले में राजा मांहूनाग जी और 1921 के बाद देवी को
महामाया (सुकेत की प्रथम राजधानी पांगड़ा की प्रसिद्ध देवी तथा सुकेत राज परिवार
की अधिष्ठात्री देवी ) के साथ देवी को मेले में ले जाया गया । और आज भी देवी की
जात्र हजारों देवी देवताओं के साथ सुकेत मेले में लगती है जिसमें लाखों की संख्या
में मेले में भीड़ रहती है !