Kamaksha mata Jaidevi |
जय देवी गांव का इतिहास राजाओं के काल से जुड़ा है इसलिए इतिहास की शुरुआत राजाओं के काल से करते हैं । एक ऐसा मंदिर के बारे में बताने जा रहा हूं जो कि रहस्य से भरा हुआ है और जिस के इतिहास को सुनकर आपकी देवी देवताओं के ऊपर आस्था और भी मजबूत हो जाएगी जिसे साबित भी हो जाएगा कि देव शक्ति के सामने कुछ भी नामुमकिन नहीं है ।
जैसा कि आप सभी लोग जानते हैं कि हम कलयुग मैं रहते हैं जो कि एक ऐसा योग है जिसमें छल कपट जैसे सारे कुकर्म का असर देखने को मिलेगा परंतु इसमें एक बात कही गई है कि इस युग में भगवान को प्राप्त करना बहुत ही आसान हो जाएगा परंतु समय के वितते कलयुग अपना असर दिखाए जा रहा है जिस युग में बहुत सारे लोग भगवान पर विश्वास नहीं करते हैं वहीं दूसरी तरफ भारत में देवी-देवताओं के ऐसे चमत्कार देखे गए हैं जिसको सुनकर वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित हो गए हैं और उनके रहस्य का कोई भी पता नहीं लगा पा रहे हैं ।
तो आज मैं आपको भारत के हिमाचल प्रदेश में मंडी जिला के सुंदर नगर तहसील में स्थित है एक गांव जय देवी जो की देवी देवताओं के चमत्कारों और उनके विश्वास एवं आस्था के लिए जाना जाता है ।
अगर हम इस गांव के इतिहास की पर बढ़ते हैं तो इस गांव का रहस्य उतना ही बड़ा है जैसे कि पूरे संसार में समाई हुई अद्भुत शक्तियां । जितना आप इस के रहस्य के बारे में जानेंगे उतना ही आप उलझते जाएंगे ।
इसी गांव में एक मंदिर है जिसका नाम है कामाक्षा भगवती जय देवी जिसका इतिहास राजाओं के काल से लोगों के बीच में अभी भी चर्चा का विषय है । जिनका मंदिर जय देवी नामक स्थान पर है। भारत के हिमाचल राज्य के मंडी जिले की सुंदरनगर तहसील में जय देवी नामक एक गांव है, जहां कामाक्षा माता का भव्य मंदिर है। जिसका निर्माण सुकेत के राजा के द्वारा करवाया गया था , आपको बता दें कि सुंदर नगर शहर का पुराना नाम सुकेत था।
सुकेत प्राचीन काल में एक रियासत थी। और जिनके अंतिम राजा महाराजा लक्ष्मण सेन थे। कामाक्षा माता को सदैव राजराजेश्वरी माता कहा गया है। तात्पर्य यह है कि माता सदैव राजाओं की कुलदेवी रही हैं। कामाक्षा माता सुकेत के राज परिवार की कुलदेवी हैं। जिसका मंदिर राजाओं ने जय देवी नामक सुन्दर स्थान पर बनवाया था।
राजा अपनी इच्छा को लेकर अपनी कुलदेवी के पास गए और कहा कि हमने अपनी नई राजधानी सुकेत में एक नए भव्य महल का निर्माण किया है और हम आपको वहीं पर ले जाना चाहते हैं। इसके बाद राजा ने आदिशक्ति मां जगदम्बा की इच्छा से नई रियासत की तरफ रवाना होने लगे ।
जब राजा ने अपनी इच्छा माँ को जताई थी तभी देवी ने राजा के समक्ष एक शर्त रखी थी कि जब एक बार हम रवाना हो जाएंगे उसके बाद मेरी पिंडी को नीचे नहीं रखा जाएगा मतलब बिना रुके राजा को सुंदर नगर का सफर करना पड़ेगा । अगर राजा कहीं पर भी विश्राम करते हैं तो अगर गलती से भी माता की मूर्ति नीचे रखी जाएगी तो माता का मंदिर का निर्माण भी वहीं पर करना पड़ेगा । अत: राजा ने यह शर्त मान ली ।
राजा ने बिना रुके बहुत से गांव को पार कर लिया था परंतु राजा की यात्रा अपने राजमहल पहुंचने से पहले ही कुछ ही दूरी पर थक गई और उन्होंने उसी स्थान पर अपना डेरा बसा दिया उसी समय माता के पालकी को भी नीचे रख दिया गया क्योंकि सारी सेना काफी थक चुकी थी और काफी लंबी यात्रा लगातार करते आ रही थी ।
राजा ने उस स्थान पर कुछ देर विश्राम किया और उसके बाद चलने लगे और इसी बीच जब राजा ने मां कामाक्षा की पालकी को उठाया तो माता की मूर्ति किसी से भी हिली नहीं जा रही थी कोई भी उस मूर्ति को उठा नहीं पा रहा था उसे देखकर राजा बहुत आश्चर्यचकित हो गया कि ऐसा क्यों हो रहा है तो फिर राजा ने अपनी राज सभा को बुलाया और अपनी चिंता जाहिर की उसी बीच ब्राह्मणों ने राजा को बताया कि शायद आप माता को दिया गया वचन को भूल गए हैं उसके बाद राजा को अपनी भूल का एहसास हुआ और राजा ने माता से माफी मांगी और कहा कि मुझे माफ कर दो और मेरे साथ राज महल चल पड़ो ।
राजा शक्तियों को अपने वस में बांधना चाहता था परंतु राजा कहीं ना कहीं पर भूल रहा था कि शक्तियों को कभी बांधा नहीं जा सकता तो इस प्रकार राजा अपने किए पर असफल रहा साथ में जन कथाओं के अनुसार वर्णन आता है कि जब माता की मूर्ति को राजा के द्वारा उठाया गया तो राजा के द्वारा भी मूर्ति उठाई नहीं जा रही थी राजा ने काफी प्रयास किए परंतु राजा इसमें असफल रहा । क्योंकि राजा शक्तियों को अपने बस में बांधना चाहता था । इस कथन से साफ होता है कि राजा को घमंड आ चुका था परंतु जब राजा के द्वारा माता की मूर्ति को नहीं उठा पाया तब राजा का घमंड चूर चूर हुआ तदोपरांत राजा ने मैया से माफी मांगी ऐसा वृतांत जन कथाओं के अनुसार आता है ।
और इतना नहीं जन कथाओं के अनुसार वृतांत आता है कि जब राजा ने माता से प्रार्थना की तो राजा को दिव्य शक्ति की अनुभूति हुई जिसने बताया गया कि अगर मैया को अपने राज महल ले जाना चाहते हो तो आपको हर कदम पर बकरे की बलि देनी होगी ।
तदोपरांत राजा ने माता को मूर्ति यहीं पर स्थापित कर दिया जिस स्थान पर माता की मूर्ति रखी गई उस स्थान का नाम जय देवी है जो कि मां कामाक्षा के नाम पर पड़ा है ( आगे पढ़े कैसे जय देवी नाम पड़ा ) ।
जब राजा के द्वारा मां कामाक्षा की मूर्ति स्थापित की गई तभी चारों ओर से जय देवी - जय देवी के जय घोष हुआ इसलिए उस स्थान का नाम जै देवी नाम से प्रचलित हो गया । और आज भी वही स्थान को जय देवी नाम से जाना जाता है ।
मां कामाख्या की मूर्ति स्थापित करने के बाद राजा ने वहां पर एक भव्य मंदिर का निर्माण किया जिसके दर्शन आज भी आप सभी भक्तों कर सकते हैं । जिस मंदिर का निर्माण राजा के द्वारा किया गया था उस मंदिर के दर्शन आज भी आप लोग मंदिर में कर सकते हैं ।
मंदिर कमेटी के द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार पिछले २०० ३०० वर्षों में दो बार किया गया है जिसमें आधुनिक कला के साथ-साथ प्राचीन कलाओं का भी प्रयोग किया गया है । जब भी आप मंदिर का दर्शन करेंगे उसमें आपको मंदिर का निर्माण लकड़ी की निकासी, प्राचीन पत्थर , लकड़ी और चक्के का देखने को मिलेगा ।
राजा मां कामाक्षा की मूर्ति को स्थापित करके अपने महल की तरफ चले गए । जब राजा मां कामाख्या की मूर्ति को लेकर आए थे उसके साथ राजा ने 64 जोगणिया सहित मांदले के साथ भैरव और हनुमान की मूर्तियों एवं अन्य मूर्तियां और वस्तुओं को भी साथ में लेकर आए हुए थे । जिनके के दर्शन आप मंदिर में कर सकते हैं । जिनकी स्थापना भी राजा ने अन्य मूर्तियों के साथ मंदिर में कर दी ।
राजा अपने साथ मां कामाख्या की जो मूर्ति लेकर आए हुए थे जिनमें से एक बड़ी मूर्ति मंदिर में विराजमान है और एक छोटी मूर्ति पुजारी के घर में राजा के द्वारा स्थापित की गई । जिसके दर्शन आप आज भी सुकेत मेले में करते हैं ।
राजघरानों की सदा से ही एक परंपरा रही है कि जब भी राजा कोई शुभ कार्य करते हैं तब वह अपनी कुलदेवी का आशीर्वाद लेकर अपने उस कार्य को आगे बढ़ाते हैं । और आज भी यही परंपरा राजघरानों के परिवार में देखी जाती है । आप उदाहरण के लिए सोच सकते हैं कि जब भी किसी के घर में कोई भी पुत्र या पुत्री की प्राप्ति होती है उसके बाल अपनी कुलदेवी के चरणों में चढ़ाए जाते हैं ।और आज भी यही परंपरा पूरे भारतवर्ष में देखी जाती है । तो इसी प्रकार की बहुत सारी परंपराएं राजघराना के द्वारा अपनी कुलदेवी के लिए समय-समय पर होती है ।
जब राजा ने अपने राज महल को सुकेत में बनाया तो राजा को इसी परंपरा को बनाए रखने के लिए राजा अपनी कुलदेवी को अपने महल आने का निमंत्रण देते थे । उसके उपरान्त मां कामाख्या पुजारी सहित अरंडी रूपी आसन पर सवार होकर राजा के महल में जाया करते थे और उसके बाद माता रानी भी राजा के महल में कुछ दिन निवास करती थी । और माता रानी की जातर भी वहीं पर होती थी जिस का वृतांत आज तक लोगों के द्वारा सुनाया जाता है । और उसके बाद धीरे-धीरे जत्र मेले में परिवर्तन हो गई जिसकी कहानी श्री मूल मांहूनाग बखारी जी से संबंध रखती है ।
अगर बात करें तो आज भी सुकेत मेला लगता है परंतु उसका स्थान अब जोहार पार्क है ।
अभी कहानी पूरी नहीं हुई । आगे की कहानी में हम आपको बताएंगे कि की सुकेत मेले राजा के बेड़े से जोहर पार्क की तरफ कैसे बड़े और माता कब से सुकेत मेले में जाने लगी । आपको जानकर आश्चर्य होगा कि माता शुरुआती दिनों में मेले में नहीं जाया करती थी । उस समय श्री मूल महूनाग जी मेले के प्रमुख मेहमान हुआ करते थे ।
धन्य है जय देवी नाम गांव जहां पर राजा की कुलदेवी ने अपना स्थान लिया और हम सभी भक्तों के बीच आकर हमें देवी की सेवा करने का मौका दिया । धन्य है वह मैया जो हमारे बीच आकर हम भक्तों का उद्धार करने आ गयी धन्य है वह राजा जिसके कारण हमें मैया के दर्शन करने का मौका मिला ।