करसोग घाटी में मनाए जाने वाले स्थानीय त्योहारों में से एक लाहौल पर्व कल धूम धाम से काओ में मनाया जाएगा। लाहौल शिव पार्वती को समर्पित त्योहार है जो काओ के अलावा ममेल पांगणा और चुराग में भी मनाया जाता है।
भगवान शिवजी के अनेक नामों मेँ "सैँई"की तरह पार्वती जी के नामों मे एक नाम "लाहौला"भी है। सम्भवतः पार्वती के इस उपनाम से इस त्योहार का नाम लाहौल पड़ा। यह पर्व दो सप्ताह चलता है जिसमे मेला से 4 सप्ताह पहले से शिव पार्वती की लकड़ी की मूर्तियों की प्रतिदिन पूजा की जाती है। पर्व से एक सप्ताह पहले से लड़कियां प्रतिदिन लाहौल को फूल चढ़ती हैं और पर्व से 2 दिन पहले लाहौल मूर्तियों का विधिवत विवाह करवाया जाता है जिसमे वर पक्ष की ओर से बच्चो की बारात आती है।
लाहौल त्योहार के दिन सुबह लाहौल( शिव-पार्वती की मूर्तियां) को काओ में स्थित नदी में ले जाते हैं और शाम के समय देवरथों के आगमन पर उन्हें पानी में प्रवाहित कर दिया जाता है। काओ के लाहौल मेले में महामाया कामाक्षा भवानी , नाग पुंडरी काक्ष : ,ममलेश्वर महादेव, और नाग कजौणी भाग लेते हैं। कामाक्षा भवानी के मंदिर से थोड़ी दूरी पर स्थित विश्राम स्थल पर कामाक्षा भवानी और ममलेश्वर महादेव की मेल होती है तदुपरांत देव नृत्य का अलौकिक दृश्य देखने को मिलता है।भक्तजन अपने देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। जिसके बाद देवता चौरी की ओर प्रस्थान करते है।
जहां लाहौल विसर्जन के बाद देवता विदाई लेकर अपनी अपनी कोठियों की ओर चले जाते हैं। इस तरह काओ मे लाहौल पर्व समाप्त होता है।काओ में मनाए जाने वाला लाहौल "काओ के लाहौल" के नाम से विख्यात है और करसोग घाटी में मनाए जाने वाला प्रथम लाहौल है। और इसके दिन माता कामाक्षा और नाग पुंडरी जी अपने रथ मे बिराजमान होकर ममेल को प्रस्थान करते है, और मम्लेश्वर और नाग कजोनी के साथ भव्य मिलन के साथ लाहौल मेले का शुभारम्भ होता है जिसे (श लाणा की लाहौल) से भी जाना जाता है,
तत्पश्चात सभी देव शक्तिया भ्याल नामक स्थान की ओर प्रस्थान करती है, और फिर वहा लाहौल को (शिव वावडी) में विसर्जित की जाती है उसके बाद देव नृत्य के अद्भुत दृशय देखने को मिलते है नृत्य के बाद सभी देवता अपने अपने मंदिर की ओर प्रस्थान करते है, और इसी तरह से लाहौल मेले का समापन होता है।
<ममेलश्वर महादेव मंदिर |
शलाणा के लाहौल की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं
करसोग घाटी में मनाए जाने वाले स्थानीय त्योहारों में से एक लाहौल पर्व आज धूम धाम से ममेल में मनाया जाएगा। लाहौल शिव पार्वती को समर्पित त्योहार है जो ममेल के अलावा पांगणा चुराग और काओ में भी मनाया जाता है। भगवान शिवजी के अनेक नामों मेँ "सैँई"की तरह पार्वती जी के नामों मे एक नाम "लाहौला"भी है।
सम्भवतः पार्वती के इस उपनाम से इस त्योहार का नाम लाहौल पड़ा। यह पर्व दो सप्ताह चलता है जिसमे मेला से 2 सप्ताह पहले से शिव पार्वती की लकड़ी की मूर्तियों की प्रतिदिन पूजा की जाती है। पर्व से एक सप्ताह पहले से लड़कियां प्रतिदिन लाहौल को फूल चढ़ती हैं और पर्व से 2 दिन पहले लाहौल मूर्तियों का विधिवत विवाह करवाया जाता है ।
जिसमे वर पक्ष की ओर से बच्चो की बारात आती है।लाहौल त्योहार के दिन सुबह लाहौल( शिव-पार्वती की मूर्तियां) को भयाल में स्थित बावड़ी ले जाते हैं और शाम के समय देवरथों के आगमन पर उन्हें पानी में प्रवाहित कर दिया जाता है। ममेल के लाहौल मेले में कामाक्षा देवी,ममलेश्वर महादेव,कजौणी नाग और पुण्डरी नाग भाग लेते हैं।
ममेलश्वर महादेव मंदिर से थोड़ी दूरी पर स्थित चौरी(विश्राम स्थल) पर कामाक्षा देवी और ममलेश्वर महादेव की मेल होती है तदुपरांत देव नृत्य का अलौकिक दृश्य देखने को मिलता है।भक्तजन अपने देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। जिसके बाद देवता भयाल की ओर प्रस्थान करते है। जहां लाहौल विसर्जन के बाद देवता विदाई लेकर अपनी अपनी कोठियों की ओर चले जाते हैं।
इस तरह लाहौल पर्व समाप्त होता है।ममेल में मनाए जाने वाला लाहौल "शलाना के लाहौल" के नाम से विख्यात है और करसोग घाटी में मनाए जाने वाला अंतिम लाहौल है