माँ कामाक्षा देवी मंदिर जयदेवी का इतिहास
माँ कामाक्षा देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश राज्य के खूबसूरत शहर सुंदरनगर से करसोग राजमार्ग पर १४ किलोमीटर दूरी पर स्थित एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। माँ कामाक्षा देवी यहां विराजमान हैं। भगयार धार के आँचल मे बसे इस गाँव का नाम भी देवी की स्थापना के बाद ही जयदेवी पड़ा । यह देवी सुकेत शासकों की कुल देवी माँ कामाक्षा है। देवी का मंदिर सुंदर पहाड़ियों से घिरा हुआ तथा प्रकृति की गोद में बसा, ऐतिहासिक कला को दर्शाता हुआ प्राचीन हिंदू मंदिर है । कामाक्षा का मतलब होता है - सभी प्रकार की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली देवी । माँ कामाक्षा के कारण यह स्थान देश प्रदेश में प्रसिद्ध है जिसे आप जैदेवी के नाम से जानते हैं । इस स्थान के आराध्य देवता श्री माँहूनाग जी जयदेवी तथा श्री बाला टीका जी जी माने जाते हैं तथा इस स्थान की उत्पत्ति माँ कामाक्षा से मानी जाती है ।मान्यता है की अगर कोई भक्त देवी माता की सच्चे मन से प्रार्थना करता है तो माँ कामाक्षा देवी उसके सभी कष्टों और विप्पतियों को हर लेती है।
श्री कुलजा भगवती कामाक्षा महामाया जैदेवी जिसको सुकेत के राजाओं की कुल देवी तथा सुकेत रियासत की राज-राजेश्वरी एवं अधिष्ठात्री देवी भी कहा जाता है। देवी का मूल मंदिर कामाख्या शक्तिपीठ असम में स्थित है । भारत के पूर्व मे बसे लोगो के द्वारा देवी को कामाख्या के नाम से , उत्तर में देवी को कामाक्षा के नाम से और दक्षिण में देवी को कामाक्षी के नाम से जाना जाता है । सुकेत के राज परिवार की कुल देवी होने पर माँ कामाक्षा को सुकेत के मेले की जलेव तथा जातर में सर्व प्रथम स्थान दिया जाता हैं। और ऐसा कहा जाता है कि सुकेत का मेला देव कमरूनाग, मूल महूनाग और माँ कामाक्षा के नाम से मनाया जाता है।
यदि माँ कामाक्षा देवी के इतिहास की बात करें तो पता चलता है कि सुकेत रियासत के राजा बंगाल के रहने वाले थे। राजा प्राचीन काल में अपनी राजधानी का गठन करने के लिए और राज करने के उद्देश्य से भारत के उत्तर दिशा की तरफ निकले तभी राजाओं के द्वारा माँ कामाक्षा कि इस अद्भुत मूर्ति को असम ( बंगाल / गुवाहाटी) से लाया गया था ।
कहा जाता है कि राजा अपनी इच्छा को लेकर अपनी कुलदेवी के पास गए और कहा कि हमने अपनी नई राजधानी सुकेत में एक नए भव्य महल का निर्माण किया है और हम आपको वहीं पर ले जाना चाहते हैं। इसके बाद राजा ने आदिशक्ति मां जगदम्बा की इच्छा से नई रियासत की तरफ रवाना होने लगे । जब राजा ने अपनी इच्छा माँ के समक्ष प्रस्तुत की तभी देवी ने राजा के समक्ष एक शर्त रखी कि जब एक बार हम रवाना हो जाएंगे उसके बाद मेरी पिंडी को नीचे नहीं रखा जाएगा अर्थात बिना रुके राजा को सुंदरनगर का सफर करना पड़ेगा । यदि राजा कहीं पर भी विश्राम करते हैं तो अगर गलती से भी माता की मूर्ति नीचे रख दी गयी तो माता के मंदिर का निर्माण भी वहीं पर करना पड़ेगा । अत: राजा ने यह शर्त मान ली । राजा ने बिना रुके बहुत से गांव को पार कर लिया, परंतु राजा की सेना अपने राजमहल पहुंचने से पहले कुछ ही दूरी पर थक गई। उन्होंने उसी स्थान पर विश्राम करने का निर्णय लिया और माता की पालकी को धरती पर रख दिया ।
कुछ देर विश्राम करने के उपरांत जब राजा ने माँ की पालकी को उठाने का प्रयास किया तो वह उठा न सका । माता की मूर्ति को उठाने का भरसक प्रयास किया गया किन्तु कोई भी उठा न सका । तदोपरांत राजा ने माता को मूर्ति यहीं पर स्थापित कर दिया जिस स्थान पर माता की मूर्ति रखी गई उस स्थान का नाम जयदेवी है जो कि माँ कामाक्षा के नाम पर पड़ा है। जब राजा के द्वारा माँ कामाक्षा की मूर्ति स्थापित की गई तभी चारों ओर से जय देवी - जय देवी के जय घोष हुआ इसलिए उस स्थान का नाम जयदेवी नाम से प्रचलित हो गया ,और आज भी इसी स्थान को जयदेवी नाम से जाना जाता है ।
कहा जाता है कि इस मंदिर में देवी कुल और काली दोनों मतों में वास करती हैं । भगवती कामाक्षा जयदेवी के मंदिर का निर्माण सुकेत के राजा के द्वारा करवाया गया था और जिसका जीर्णोद्धार मंदिर कमेटी के द्वारा और स्थानीय लोगों के द्वारा कई बार करवाया गया ।
सुकेत के राजघरानों की सदा से एक परंपरा रही है कि राजा कोई भी शुभ कार्य करने से पहले वह अपनी कुलदेवी का आशीर्वाद सदा लिया करते थे। इसके लिए राजा अपनी कुलदेवी को अपने महल मे आने का न्योता दिया करते थे। जिसे जिसे स्थानीय भाषा में “जातर” कहा जाता है । प्राचीन काल में राजा स्वयं और कुछ कारदारो के साथ मां कामाक्षा को मेले में ले जाने के लिए आते थे । इसके बाद राजा के द्वारा कुलदेवी को बड़े ही धूमधाम से अपने महल में पालकी पर लाया जाता था ।
कालान्तर में स्थानीय वासियों के द्वारा देवी के लिए भव्य पालकी का निर्माण किया गया जिसके बाद देवी का स्वागत मेले में पालकी के साथ होता है ।उसी दौरान देवी के मेले महल में लगा करते थे । पहले देवी के मेले लोहारा में उसके बाद करतारपुर में और आखिरी में बनेड के महल में लगा करते थे । सन् 1900 के बाद सुकेत के अंतिम राजा लक्ष्मण सेन के द्वारा देवी को सुकेत मेले में राजा मांहूनाग जी और 1921 के बाद देवी को महामाया (सुकेत की प्रथम राजधानी पांगड़ा की प्रसिद्ध देवी तथा सुकेत राज परिवार की अधिष्ठात्री देवी ) के साथ देवी को मेले में ले जाया गया । आज भी देवी की जातर हजारों देवी देवताओं के साथ सुकेत मेले में लगती है जिसमें लाखों की संख्या में मेले में भीड़ रहती है।
जयदेवी का यह मँदिर सेन वँशीय सुकेत शासकों के परिवार के साथ आज स्थानीय लोगों की श्रद्धा और आस्था का केन्द्र है।माता से की गयी मन्नत पूर्ण होने पर के बाद श्रद्धालु यहाँ "जातर" लाकर अपनी मन्नौतियाँ माँ के चरणों मे अर्पित करते है।
ग्रीष्म एवं शारदीय नवरात्रो मे माँ के पूजन- अर्चन के कारण श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है। दूर- दूर से भक्तजन श्रद्धा भाव से माँ का दर्शन व आशीर्वाद प्राप्त करने आते हैं। स्थानीय वासियो ने आज आपसी सहयोग से इस मँदिर का जीर्णोद्धार कर इसे भव्य रूप प्रदान किया है। मंदिर कमेटी के द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार पिछले २००- ३०० वर्षों में दो बार किया गया है । जिसमें आधुनिक कला के साथ-साथ प्राचीन कलाओं का भी प्रयोग किया गया है । जब भी आप मंदिर का दर्शन करेंगे ,उसमे आपको लकड़ी की सुन्दर नक्काशी पर देवी-देवताओं के चित्र देखने को मिलेंगे। मँदिर के गर्भगृह मे माँ कामाक्षा जी की दिव्य प्रस्तर प्रतिमा पूजनीय है। विवाह, मांगलिक उत्सवों एवं विविध धार्मिक अनुष्ठानों हेतू मंदिर में सराय भवन का निर्माण किया गया है जहाँ पर श्रद्धालुओं के ठहरने का उचित प्रबंध है।