श्री कामाक्षा महामाया मंदिर जय देवी का इतिहास राजाओं के काल से माना जाता है
जिनका मंदिर हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत शहर सुंदर नगर से १४ किलोमीटर दूरी पर जै
देवी नामक स्थान में स्थित है । सुंदर नगर करसोग राजमार्ग पर बसा यह गाँव
कामाक्षा माता के मँदिर के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध है । यह मंदिर सुंदर
पहाड़ियों से घिरा हुआ और प्राकृति की गोद में बसा हुआ प्रकृति की सुंदरता में
अद्भुत नमूना है । यह देवी और कोई नहीं बल्कि सुकेत शासकों की कुल देवी
"कामाक्षा" ही है। जिसे आप "जयदेवी माता" और अन्य कई नाम से जानते हैं।
श्री कुलजा भगवती कामाक्षा महामाया मंदिर जय देवी जिस सुकेत
के राज परिवार की कुलदेवी के रूप में जाना जाता है । राजाओं के द्वारा देवी को
बंगाल से लाने के कारण देवी का मूल स्थान बंगाल माना जाता है ।
देवी के मूल स्थान की बात करें तो देवी का मूल स्थान असम गुवाहाटी में “ कामाख्या ”
नाम के शक्तिपीठ के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जाता है कि जब सुकेत के सेन
वंशीय राजाओं के द्वारा देवी को बंगाल से उत्तर भारत लाया गया और राजाओं द्वारा
देवी को अपने राजमहल में स्थान दिया गया । सुकेत के राजाओं के अनुसार देवी को
गृह कुलदेवी के रूप में जाना जाता है ।
देवि
का सुकेत के राजाओं के संग बहुत ही गहरा नाता रहा है ।
देवी की जय देवी में मंदिर बनने की कहानी अद्भुत है जो कि राजाओं की राजधानी वितरण से संबंध रखती है । इसके बारे में अनेकों
कहानियां प्रचलित है
जिनमें से यह एक है । ऐसा कहा जाता है कि जबसुकेत शासकों के पाँगणा के बाद
लोहारा और फिर करतारपुर ( पुराना बाजार ) मे सुकेत की राजधानी बनने के समय देवी
की मूर्ति को जय देवी में स्थापित किया । देवी के स्थापित हो जाने के बाद ही
इसी स्थान का नाम जयदेवी पड़ा ।
जब सुकेत के राजा अपनी पुरानी राजधानी पाँगणा से नई में बदल रहे थे तभी राजा
ने देवी को अपने संग नई राजधानी में ले जाने की इच्छा जताई तभी राजा के आग्रह
से पुजारी ने राजा के समक्ष देवी के द्वारा कही जाने वाली शर्त रखी कि जब देवी
की मूर्ति को ले जाया जाएगा तभी देवी की मूर्ति को कहीं पर भी विश्राम नहीं
देना होगा ( मतलब धरती पर नहीं रखना होगा ) । अन्यथा देवी की मूर्ति को वहीं पर
स्थापित करना होगा । अंततः राजा ने शर्त मान ली और नई राजधानी की तरफ प्रस्थान
करने लगे ।
इतिहास में ऐसा वृतांत सामने आता है कि जब सुकेत के राजा अपनी नई राजधानी
पहुंचने से पहले ही कुछ दूरी पर रुक गए और विश्राम करने लगे । इसी दौरान राजा
के आदेश से (भूल वस) देवी की मूर्ति को धरती पर रख दिया गया और विश्राम पूर्ण
होने पर जब राजा अपने महल को मूर्ति को ले जाने लगे यह तो मूर्ति किसी से भी ना
उठी । राजा भी प्रयास करने के लिए आगे आए परंतु राजा भी असफल रहे । जब राजा के
कई बार प्रयास करने पर देवी की मूर्ति थोड़ी सी भी नहीं हिली तो राजा को पुजारी
द्वारा कही गई शर्त के बारे में ज्ञात हुआ । और राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ
।
जिसके फलस्वरुप राजा ने इसी स्थान पर देवी की स्वयं इच्छा से मूर्ति को
स्थापित किया । राजा के द्वारा मूर्ति स्थापित करते ही चारों ओर से जय देवी -
जय देवी के जयकारों से पुरी धरती गूंज पड़ी और तभी से यही का नाम जैदेवी नाम से
विख्यात हो गया ।
राजा के कहे अनुसार और देवी की इच्छा से देवी कामाक्षा की छोटी मूर्ति को
पुजारी के घर में स्थान दिया गया । जिस मूर्ति दर्शन आज भी आप सुकेत मेले में
कर रहे हो । लोक कथा के अनुसार कहा जाता है कि सुकेत परिवार के शुभ कार्य,
अनुष्ठान और त्योहार के लिए देवी का परंपरा अनुसार अलग महत्व होता था जिसके
फलस्वरुप देवी को राजा के द्वारा राजमहल आने का न्योता दिया जाता था । जिसे
स्थानीय भाषा में "जात्र" कहा जाता है । जिसने 19वीं शताब्दी आते तक मेले का रूप ले लिया । देवी का मंदिर का आज भी सुकेत के
सेन परिवार और गौतम गोत्रीय ब्राह्मण के साथ अटूट नाता रहा है ।
नवरात्रो मे माँ के पूजन- अर्चन के कारण श्रद्धालुओ की भीड़ रहती है। इतिहास
में मंदिर का निर्माण शिखर शैली में हुआ था । मंदिर के गर्भगृह मे माँ कामाक्षा
की प्रस्तर प्रतिमा पूज्य है। कालांतर में स्थानीय वासियों के द्वारा देवी के
लिए वर्ष २०१४ में नव मंदिर का निर्माण कराया गया और वर्ष २०१९ में देवी के लिए
भव्य पालकी का निर्माण कराया गया इसके उपरांत देवी का स्वागत मेले में पालकी के
साथ मेला कमेटी द्वारा किया जाता है । मंदिर कमेटी के अनुसार मंदिर का जीणौधार
पिछले २००-३०० वर्षों में दो बार किया गया है । जिसमें स्थानीय लोगों का बहुत
ही बड़ा सहयोग रहा है । इसके साथ-साथ सुकेत और मंडी रियासत के राजाओं के द्वारा
दिए गए अमूल्य उपहारों से मंदिर की शोभा बढ़ाई है ।
जय देवी का यह मँदिर सेन वँशीय सुकेत शासकों के परिवार के साथ आज स्थानीय
लोगों की श्रद्धा और आस्था का स्थल है। माता से की गई मन्नौती पूर्ण होने के
बाद श्रद्धालु यहाँ "जातर" लाकर अपनी मन्नौतियाँ माँ के चरणों मे अर्पित करते
है